मेरे गाँव की पाठशाला की पुरानी पाटी (स्लेट),जिस पन्ने पर जीवन का पहला अक्षर उकेरा,आज वर्चुयल पाटी के रूप में मेरे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की वो डायरी है जिसपे आस पास बिखरे हुए प्रेम,विरह,वेदना सफलता,असफलता,नफरत,घृणा,यौनिकता के भावों की कहानियाँ ,कहानियों के रूप में या लेख,व्यंग्य और गीतों, गजलों के रूप में दर्ज होते रहेगें! आपसे रिश्ता खास है क्यूँ कि ये सब जीने वाले पात्र हम और आप हैं एक वर्चुयल परिवार की तरह!
आपके आने का शुक्रिया और सुझावों और प्रतिकाओं का मुन्तजिर
Saturday 6 January 2018
अतीत में हम
मैं अक्सर सोचता हूं, मैं सोचता हूं क्या।
दरो दीवार पर ,तेरा ,नाम ढूंढता हूं क्या।।
मंजिलें जो एक थीं कब कि कहां रह गई
गुजरे रास्तों पर ठहर कर, देखता हूं क्या।
वाह ...आगे भी लिखना था .
ReplyDeleteKaise hain mam aap
Deleteमैं ठीक हूं विकास. बहुत दिनों से न आपने यहाँ कुछ लिखा न ही मेरे ब्लाग पर आए. सब ठीक है न?
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