बाद मुद्दत के , बड़ी सिद्दत से।
ये हम जो कुछ भी मांग बैठे।।
यकीन था हमको आरजू पर।
वो इन्कार की जिद ठान बैठे।।
मेरे गाँव की पाठशाला की पुरानी पाटी (स्लेट),जिस पन्ने पर जीवन का पहला अक्षर उकेरा,आज वर्चुयल पाटी के रूप में मेरे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की वो डायरी है जिसपे आस पास बिखरे हुए प्रेम,विरह,वेदना सफलता,असफलता,नफरत,घृणा,यौनिकता के भावों की कहानियाँ ,कहानियों के रूप में या लेख,व्यंग्य और गीतों, गजलों के रूप में दर्ज होते रहेगें! आपसे रिश्ता खास है क्यूँ कि ये सब जीने वाले पात्र हम और आप हैं एक वर्चुयल परिवार की तरह! आपके आने का शुक्रिया और सुझावों और प्रतिकाओं का मुन्तजिर
तुम कितने ही कांधों पर सर रखोगे
लाख चाहोगे खुद को बेघर ही रखोगे
तुम्हें घर बसाना था घर बस गया है
अपने सपनों के हिस्से को किधर रखोगे
देखा है हमने एक एसा मकान भी
घर रोशनी के अँधेरा मेहमान भी
खुदी में जब्त है जिसके
नव सृजन का सब सामान भी
कुछ आग है तो कुछ पानी भी
संग मिट्टी के हवा की रवानी भी
सुनो गौर से एक एसी वानी भी
जलता दिया कहता है कोई कहानी भी
महलों में रहा अभिमान पाया
झोपडी में दुखों को जान पाया
साथ बच्चों के रहा खुशी पहचान पाया
मन्दिरों में रहा तो सम्मान पाया
पर होता दफ्तरों में अपमान पाया
मरघट पे शाश्वत सच हैरान पाया
टिमटिमाती लौ लडती है
फिर बुझ क्यूँ जाती है
बाती तेल का साथ निभाती है
फिर तन्हा क्यूँ रह जाती है
मिट्टी माँ है माँ जननी है
फिर मर क्यूँ जाती है
हौसला जब तक है
मैं अक्सर सोचता हूं, मैं सोचता हूं क्या।
दरो दीवार पर ,तेरा ,नाम ढूंढता हूं क्या।।
मंजिलें जो एक थीं कब कि कहां रह गई
गुजरे रास्तों पर ठहर कर, देखता हूं क्या।
गुजरते हुए हर एक साल की तरह ही ये एक साल भी गुजर ही गया बहोत सारी खट्टी मि्ठी यादों के साथ और इस साल के गुजरने में या इन यादों में इतनी एकरसता सी आ गएी है कि नीरसता सी होने लगती है और साथ में वही पुरानी घिसी पिटी शुभकामनाओं के साथ तो मन और ऊचाट हो जाता है व्याट्सअप पर तो आपको कई संदेश दूसरों के नाम से मिल जाएँगें जैसे डाकिया गलती से मिश्रा जी की चिठ्ठी तिवारी जी के घर दे आया हो रोग फिल्म को वो संवाद याद आ रहा है जब इरफान खान डा० को अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या सुनाते हैं
(घर थाना थाना घर वही खून .... मन ऊब सा गया है)
एक शहर की वो जिन्दा कहानी आज भी है
मोहब्बत में धडकते दिलों में रवानी आज भी है
दिन के उजाले झूठी मुस्कानों को ढो रहे हैं
रात जानती है उनकी आँखों में पानी आज भी है
वादों ख्याबों खयालों की चिता तो कब की जल चुकी
कुछ लफ्जों में बची उसकी निशानी अाज भी है
उनसे मिलने का तसव्वुर फिर जाग बैठा जबकि मालूम है
दिल तोड जाने की उनकी आदत पुरानी आज भी है