Wednesday 2 September 2015

नया सफर

आत्मिक खुशी या वास्तविक खुशी हमेशा ही आपके अन्दर ही होती है इस बात का जिक्र किताबों में अक्सर ही हमने पढा है लेकिन आज इस बात को महसूस भी कर पा रहा हूँ लगभग तीन साल पहले ये ब्लाग बनाया था लेकिन पूरी तरह से लिखने की प्रबल इच्छा मन में लिए भी नहीं लिख पा रहा था तमाम कारण खुद ही बना के खुद को बहला लेता था मसलन हिन्दी टाइपिंग सीख लूँगा तब लिखुँगा ,नए साल से लिखुँगा ,नौकरी लग जाए तब लिखुँगा और कितनी विचित्र सी बात है कि ऊपर लिखे कारणों में से आज कोई भी नहीं है बस तकनीक का थोडा सहारा लिया और बस अपने एक सपने को जीने लगा और अब ये सतत चलता रहेगा
आपने भी अगर कुछ करने का ख्याल पाला हुआ है तो मैं बस इतना ही कहूँगा कि जितनी जल्दी हो सके उस ख्याल को जमीन पे ले आइए वो चाहे कुछ भी हो वगरना क्या पता मेरे किसी दोस्त की कही वो लाइन सच हो जाए
ख्याल का क्या है आया फिर चला गया

2 comments:

  1. बिल्कुल सही कहा विकास जी .खयालों का क्या , आते हैं और चले जाते हैं पकड़कर रखलो तो काम आते हैं .
    आपने मेरी कहानी पढ़ी .बहुत अच्छा लगा कुछ अलग विचार देखकर . लेकिन विकास जी वह एक अलग स्कूल की ( मालती जोशी जी वाले ) कहानी है जहाँ संवेदना उस स्तर पर नही पहुँचती जहाँ विद्रोह और बिखराव आता है . कुल मिलाकर यह शुद्ध पारिवारिक की कहानी है . सर्द रात और पूरी जिन्दगी में आप दूसरा रूप देखेंगे . सचमुच मुझे बहुत अच्छा लगा क्योंकि सही पाठक वही है जो अपनी दृष्टि से विचार रखे .

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  2. शुक्रिया गिरिजा जी कि आपने मेरे विचारों की मौलिकता को सम्मान दिया मैं जरूर आपकी सारी कहानियाँ पढूंगा ब्लाग तक आने का और अपनी सहमति जता के संबल बढाने का बहोत शुक्रिया वैसे मुझे आपकी घोर आलोचना से भी बल मिलेगा आते रहिएगा

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